प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
पिंक पर्ल में जहाँ प्रेमी मिलते हैं; वहाँ से एक प्रेमी युगल का बिछोह बाँचना भी क्या कम पीड़ा है। निम्ब वृक्ष की मृणाल टहनियाँ फूलों से लदी हुईं थीं। उस ऋतु में बौद्ध भिक्षुणी सा स्थैर्य था। प्रशान्त सब कुछ। हवाएं भी मन्थरता से चल रहीं थीं। शोक के लिए कहीं कोई अवकाश नहीं था। आज वो लोबान सी महक रही थी। मैं प्रायः उसकी आँखों को कामाख्या से अलंकृत करता। आज उन आँखों में उज्ज्वला किन्चित् अल्पतर थी। उल्लास ऐनक पार भी ऐसे झिलमिलाता जैसे अंजन आँजा हुआ हो लेकिन यह नैराश्य मैं नहीं देख पा रहा था; जबकि उसने आज चश्मा भी नहीं लगाया था। उसने आगे बढ़ते हुए मेरा हाथ अपने हाथों में लिया; मुझे स्मृत हो आया कि इसी भाँति शताब्दी देख चुकी मेरी नानी माँ मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर चूम लेती है। वह उसे चूम न सकी, और मैं अपनी अचरज भरी दृष्टि उसकी आँखों से हटा नहीं पा रहा था। उसे बिलख पड़ना था, लेकिन वह चुप रही — ऐसा मुझे लगा। कुछ विवशताओं की आंगिक प्रतिक्रिया नहीं होती। वे हृदय से रिसती तो हैं लेकिन आँखों तक आते-आते किसी देहाती नदी सी सूख जातीं हैं। कुछ पीड़ाएं नीरवता से घटतीं हैं। उनका घटना किसी ने नहीं देखा। वे धरा और व्योम के मध्य बिखर जाने के लिए बनी होतीं हैं।
हम अब कभी नहीं मिलेंगे — एकमात्र वाक्य कहा उसने। फिर जिह्वा जैसे सुन्न हो गयी। वहाँ पास में ही एक प्रेमी युगल आलिंगनबद्ध था। मैं दो विपरीत ध्रुव देख रहा था। लेकिन कौन परायी प्रसन्नता आत्मपीड़ा का निरसन कर सकती है। मुझे अपने लोक में बुलाता स्वर कुछ कर्कश हुआ जा रहा था।
वह कह सकती थी हमारी साथ वाली सब फ़ोटो डिलीट कर देना, मुझे सब सोशल प्लेटफॉर्म्स से ब्लॉक कर देना — मैंने ऐसा सोचा। उसने ऐसा कुछ न कहा। “तुम हमेशा ख़ुश रहना। मैंने कभी तुम्हारा बुरा नहीं चाहा, स्यात् तुम्हें इस बात पर भरोसा हो। ” उसने बस इतना कहा और एक्टिवा पर बैठ अपने घर को चल दी। अंतिम की स्मृति नहीं होती। स्यात् इसीलिए उसने मुझे बाँहों में भरना या चूमना उचित न समझा। मैं प्रथम आलिंगन की ही भाँति अंतिम भेंट को स्मरण न करूं – यही वह चाहती हो। उसने मुझे दुःख की कोई भौतिक स्मृति नहीं देनी चाही।
मैंने देखा वृक्ष पर कुछ पँछी बैठे हैं। हवाएं उसी गति से चल रहीं थीं। एक बिछोह इतनी गोपनीयता से घटा कि आसपास किसी को ज्ञात न हुआ। दो दग्ध हृदय अपने अपने गंतव्य जा चुके थे।