सुप्रीम कोर्ट के आदेश से नोएडा स्थित भ्रष्टाचार के ट्विन टावर को जमींदोज कर दिया गया। गैरकानूनी तरीके से खड़े किए गए टावर बेशक ढहा दिए गए पर इससे उठे गुबार में ढेरों सवाल छिपे हुए हैं। सबसे बड़ा और प्रमुख सवाल यह है कि आखिर ऐसी नौबत ही क्यों आती है कि अतिक्रमण कर बनाई गई किसी स्थायी-अस्थायी सम्पत्ति को अदालतों के आदेश से ढहाया जाए। यह पहला मौका नहीं है जब अदालत के आदेश से अतिक्रमण को ढहाया गया हो, इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट, राज्यों के हाई कोर्ट और स्थानीय अदालतें रिहायशी में व्यवसायिक गतिविधियां, वन तथा सरकारी भूमि पर हुए अतिक्रमणों के खिलाफ सैंकड़ों फैसले दे चुके हैं।
सवाल यही है कि क्या इस टावर के ढहाने के बाद सरकारों और अधिकारियों की आंखें खुलेंगी। क्या देश में पसरते जा रहे अतिक्रमण के खिलाफ ऐसा कोई अभियान चलाया जाएगा जिससे लोग सुकून की सांस ले सकें। सुप्रीम कोर्ट ने एमसी मेहता बनाम केंद्र सरकार के मामले में 14 अगस्त 2020 को फैसला देते हुए सार्वजनिक भूमि पर हुए अतिक्रमण को अवैध मानते हुए हटाने के निर्देश दिए थे। इसी तरह दिसंबर 2017 में दिए गए निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने रेलवे की सम्पत्ति पर सभी तरह के अतिक्रमण हटाने के निर्देश दिए थे। इस फैसले में अतिक्रमण के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई करने के भी निर्देश दिए गए थे।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 21 जुलाई 2022 को दिए गए एक फैसले में गुड़गांव और फरीदाबाद जिले की 1100 एकड़ वन भूमि पर हुए अतिक्रमण को हटाने के लिए केंद्र और हरियाणा सरकार को निर्देश दिए थे। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से प्रशासन और हरियाणा सरकार के हाथ पैर फूले हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने ही 7 जून 2021 को हरियाणा सरकार और फरीदाबाद नगर निगम को अरावली रेंज की पहाड़ी क्षेत्र में आने वाले 10 हजार पक्के रिहायशी निर्माण को ढहाने के निर्देश दिए थे। अतिक्रमण के ये वो मामले हैं जो सुप्रीम कोर्ट तक जैसे-तैसे पहुंचे हैं। देश में लाखों अतिक्रमण के मामले ऐसे हैं, जो कोर्ट तक नहीं पहुंचे, इनकी चिंता न स्थानीय प्रशासन को है और न ही राज्य सरकारों को। वोट बैंक के लिहाज से ऐसे अतिक्रमण बर्र के छत्ते हैं, जिनमें हाथ डालने का मतलब है कि वोट बैंक का खिसकना, जिसे कोई भी राजनीतिक दल मंजूर नहीं कर सकता।
शहर और बड़े कस्बे में अतिक्रमण के असली जिम्मेदार राजनीतिक दल हैं, इनमें सभी दल शामिल हैं। फिर चाहे वो राष्ट्रीय हों या क्षेत्रीय हों। अतिक्रमण कर बसी बस्तियां राजनीतिक दलों के नेताओं के थोक वोट बैंक का काम करती हैं। क्षेत्रीय नेता ऐसी बस्तियों के अतिक्रमण हटाने पर सड़कों पर उतर आते हैं। पार्षद से लेकर सांसद और मंत्रियों तक का अतिक्रमियों को संरक्षण प्राप्त है। ऐसे में शासन-प्रशासन में किसी की हिम्मत नहीं होती कि अतिक्रमणकारियों को सरकारी भूमि से बेदखल कर सके। यही वजह है कि बांग्लादेशियों का अतिक्रमण देश से आज तक नहीं हट पाया। कूच बिहार और बंगाल के बाशिेंदे होने के नाम पर बांग्लादेशी पूरे देश में विषबेल की तरह फैले हुए हैं। राजनीतिक दल अवैध बस्तियों का किस हद तक संरक्षण करते हैं, इसका उदाहरण पश्चिमी बंगाल की ममता बनर्जी की सरकार है, जिसने पहले ही साफ कह दिया कि एक भी बांग्लादेशी को दरबदर नहीं किया जाएगा। कारण साफ है ज्यादातर बांग्लादेशी मुसलमान हैं और ये ममता बनर्जी का बड़ा वोट बैंक हैं।
अतिक्रमण के मामलों की विषबेल बढ़ती ही जा रही है। नियमानुसार तो हर शहर की स्थानीय निकाय शहर की बसावट के लिए मास्टर प्लान और उसके उप प्लान के हिसाब से शहर बसाने का दावा करती हैं। इसके बावजूद देश का शायद ही ऐसा कोई शहर होगा, जिसे निर्धारित मास्टर प्लान के अनुरूप विकसित किया गया होगा। इसमें अधिकारी-नेता और ठेकेदारों की दुरभि संधि काम करती है कि कैसे निजी मुनाफे के लिए प्लान को तोड़-मरोड़ कर लागू किया जाए। शहरों में यातायात की समस्या, पार्कों की सुविधा और अन्य सार्वजनिक स्थानों की सुविधा में प्रमुख बाधा अतिक्रमण बना हुआ है। वन क्षेत्र और चारागाह की भूमि अतिक्रमण की आसान शिकार हो गई है। देश में भारी संख्या में ऐसे अतिक्रमण पसरे हुए हैं। अतिक्रमियों के हौसले इस कदर बुलंद हैं कि वन क्षेत्र, दलदली क्षेत्र, बांध, नदी-नालों के भराव क्षेत्र और यहां तक पहाड़ के कई इलाकों में पहाड़ तक निगल जा चुके हैं।
वन क्षेत्रों में लगातार बढ़ते अतिक्रमण से देश की जैव विविधता संकट में हैं। पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ने से प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता और बढ़ोतरी इसके उदाहरण हैं। अतिक्रमण से देश के नेशनल पार्क तक अछूते नहीं हैं, जिन्हें सर्वाधिक सुरक्षित माना जाता है। जंगलों के सिकुड़ने से वन्यजीवों की संख्या गिरती जा रही है। खाद्य श्रृंखला में शीर्ष पर मौजूद बाघ और शेर जैसे जानवरों के अस्तित्व पर बन आई है। वन्यजीवों पर दोहरी मार पड़ रही है। एक तरफ अतिक्रमण से इनका शिकार का इलाका सिमट रहा है, वहीं दूसरी तरफ शिकार का खतरा बढ़ रहा है।
अरावली की पहाड़ी श्रृंखला में गायब हुए पहाड़ अतिक्रमण की दास्तां के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। राजस्थान से लेकर हरियाणा तक इस पहाड़ी के दर्जनों हिस्से अवैध खनन की भेंट चढ़ चुके हैं। खनन माफियाओं ने यह कारनामा एक दिन में नहीं किया। यह सिलसिला कई दशकों से जारी है। कई सरकारें आती-जाती रहीं किन्तु पहाड़ी का गायब होना जारी रहा। इस अवैध खनन के खिलाफ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल और अदालतें तक कई बार आदेश दे चुकी हैं, किन्तु सरकारों ने कोर्ट के आदेशाों की पालना में कभी दृढ़ता नहीं दिखाई। अदालत के भय से सांकेतिक तौर पर कार्रवाई करके अपने कर्तव्य की इति श्री कर ली गई। ट्विन टावर को ढहाने के बाद इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है कि लचर सरकारी अमला तभी सक्रिय होगा जब अदालतें अतिक्रमण के खिलाफ ऐसे ही कठोर आदेश जारी करेंगी और जिम्मेदारों को सीधे जेल भेजेंगी। ऐसे मामले में सरकारों से कोई उम्मीद रखना बेमानी हो गया है।