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देहरादून। उत्तराखंड विधानसभा का सत्र एक बार फिर रस्म अदायगी बनकर रह गया। सत्र के लिए सात दिन तय थे, मगर दो दिन में ही निपटा दिया गया। सवाल उठे तो विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी भूषण का जवाब था, सरकार के पास जितना काम (बिजनेस) था, वह दो दिन में पूरा हो गया।
प्रश्न फिर उठा कि जब बिजनेस नहीं था, तो सत्र के लिए सात दिन क्यों तय हुए। प्रश्न विपक्ष के किरदार पर भी उठे कि उसके तरकश में मुद्दों के जितने तीर थे, उन्हें वह कायदे से चला नहीं पाई। कानून व्यवस्था और बेरोजगारी के मुद्दे पर वह सरकार को घेरने की कोशिश ही करती नजर आई, लेकिन उसकी शारीरिक भाषा से नहीं लगा कि कानून व्यवस्था और भर्ती घोटाला जितने गंभीर मुद्दे हैं, उन्हें उठाने में विपक्ष ने उतनी गंभीरता दिखाई।
विधानसभा में बैकडोर भर्ती पर विपक्ष बेशक स्पीकर की अनुमति बगैर सदन में नहीं गरज सकता था, लेकिन सदन से बाहर उसके पास विकल्प खुले थे, फिर भी वह चुप रहा। उसकी गंभीरता पर तब प्रश्न खड़े हुए जब बीच सत्र से उठकर कई विपक्षी विधायक सत्तापक्ष के विधायकों के साथ सीएम धामी से विधायक विकास निधि के मसले पर अनुरोध करने पहुंच गए।
फ्लोर मैनेजमेंट के लिहाज से चले सीएम के इस दांव को विपक्षी सदस्य शायद समझ नहीं पाए। विपक्ष को क्योंकि मुद्दे उठाने थे, इसलिए वह सदन में लौटा और सरकार को विधायी कार्य निपटाना था, इसलिए उसने महिला क्षैतिज आरक्षण, धर्म स्वतंत्रता विधेयक समेत कई अहम विधेयकों पर चर्चा कराने की जहमत नहीं उठाई।
विपक्ष का सांकेतिक वॉकआउट सरकार के लिए विधेयकों को फटाफट पारित कराने का जरिया बन गया। महिला आरक्षण चूंकि राज्य की आधी आबादी से जुड़े मसला है, लिहाजा उसमें सहमति जताना विपक्ष की मजबूरी बन गई। बगैर चर्चा के 14 विधेयकों के पारित होने के प्रश्न पर संसदीय कार्य मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल कहते हैं, पटल पर आए विधेयकों में ज्यादातर संशोधित विधेयक थे। महिला सशक्तिकरण के विधेयक पर जिन सदस्यों ने चर्चा करने की इच्छा जताई उन्हें मौका मिला। बाकी विधेयकों पर विकल्प खुला था।
लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर कहे जाने वाली उत्तराखंड विधानसभा में औसतन 50 दिन सत्र चलना चाहिए, लेकिन वह औसतन 14 दिन ही चल रही है। पीआरएस लेजिस्टिव रिसर्च (पीआरएस) की एक रिपोर्ट 2021 में आई थी। इसके मुताबिक, 2016 से 2021 के बीच 23 विधानसभा सत्र औसतन 25 दिन चलते हैं।