उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव आजकल योगी सरकार में डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के खिलाफ बेहद आक्रामक नजर आ रहे हैं। अखिलेश किसी न किसी बहाने मौर्या पर निशाना साधते रहते हैं। सपा प्रमुख कभी मौर्य के परिजनों को कभी राजनीति में खींच लाते हैं तो कभी उनके प्रति सहानुभूति वाला व्यवहार करते नजर आते हैं। मौर्य को मुख्यमंत्री का पद दिलाने का सपना दिखाते हैं।
अखिलेश और मौर्य विवाद में कभी पलड़ा अखिलेश का भारी नजर आता है तो कभी मौर्य बीस पड़ते दिखाई देते हैं। ऐसे में चर्चा है कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि अखिलेश ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को छोड़कर केशव प्रसाद मौर्य पर हमले शुरू कर दिए? इसके पीछे की सियासत क्या है। राजनीति के कुछ जानकार इसे अखिलेश यादव की सोची समझी रणनीति का हिस्सा बताते हैं, जिसके सहारे सपा प्रमुख पिछड़ों के मन में बीजेपी के प्रति नफरत का भाव पैदा करना चाहते हैं।
उत्तर प्रदेश में पिछड़ों की आबादी करीब चालीस फीसदी है। 2014 के बाद से कई चुनावों में पिछड़ा वोटर भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में मतदान कर रहा है, जबकि इससे पहले तक समाजवादी पार्टी की पिछड़ों में अच्छी खासी पकड़ थी। पूर्व सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को तो पिछड़ों का बड़ा नेता होने का तमगा तक हासिल था। पिछड़ों के सहारे मुलायम ने सियासत की लम्बी और कामयाब पारी खेली थी, लेकिन अखिलेश यादव में वह बात नहीं है।
अखिलेश के सपा की कमान संभालने के बाद पिछड़ा वोटर सपा से विमुख होता जा रहा है। समाजवादी पार्टी की लगातार असफलता के पीछे पिछड़ा वर्ग के वोटरों का सपा से विमुख हो जाना भी बड़ी वजह है। इसीलिए बार-बार केशव प्रसाद मौर्य पर निशाना लगाकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव पिछड़ों के बड़े वर्ग मौर्य, कुशवाहा व अन्य पिछड़े वर्ग को ये संदेश देना चाहते हैं कि उनके नेता के साथ भाजपा गलत कर रही है। वह यह दर्शाना चाहते हैं कि भाजपा में केशव प्रसाद मौर्य की कोई अहमियत नहीं है और सरकार में भी उनके साथ भेदभाव हो रहा है। चुनाव के दौरान भी अखिलेश और उनके समर्थक इसकी कोशिश कर चुके हैं।
बहरहाल, समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव इस समय चौतरफा हाथ-पैर मार रहे हैं। वह समझ नहीं पा रहे हैं कि कौन-सा फार्मूला अपना कर वे अपनी लगातार हार को जीत में बदल सकते हैं। लेकिन उनके हाथ कुछ लग नहीं रहा है। इसी के चलते वह मानसिक दबाव में हैं। राजनीति विचारधारा की लड़ाई होती है लेकिन अखिलेश ने कई मौकों पर इसे व्यक्तिगत लड़ाई में भी बदलने में परहेज नहीं किया जिसका उन्हें और उनकी पार्टी को नुकसान भी उठाना पड़ा। वह कभी योगी पर हमला करते हैं तो कभी केशव प्रसाद मौर्य पर हमलावर हो जाते हैं। चाचा शिवपाल यादव पर तंज कसने का कोई मौका भी नहीं छोड़ते।
2017 के विधानसभा चुनाव में भरे मंच पर अखिलेश ने जिस तरह से अपने पिता मुलायम सिंह को भरी सभा में अपमानित किया था, वह आज भी बहुत से लोग भूल नहीं पाए हैं। अखिलेश यादव गठबंधन धर्म निभाने में भी फिसड्डी साबित हो रहे हैं। ओमप्रकाश राजभर इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं जिनके साथ अखिलेश का गठबंधन कुछ महीनों भी नहीं चल पाया। चाचा शिवपाल यादव कभी उनके करीब दिखते हैं, फिर अचानक दूर चले जाते हैं। अब तो यह हाल हो गया है कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव भारतीय जनता पार्टी के नेता और डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य को यह आमंत्रण देने लगे हैं कि यदि वह (केशव प्रसाद) 100 विधायक लेकर आ जाएं तो अखिलेश, उन्हें मुख्यमंत्री बनवा देंगे। इस पर शिवपाल यादव पूछ रहे हैं कि अगर केशव प्रसाद मौर्य को अखिलेश सीएम की कुर्सी सौंप देंगे तो स्वयं क्या करेंगे। इस तरह की बचकानी बातों से अखिलेश अपना स्तर लगातार गिराते जा रहे हैं।
अच्छा होता कि अखिलेश यादव अपने पड़ोसी राज्य बिहार के राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव से कुछ सब सीख लेते जो किताबी ज्ञान में भले अखिलेश से अट्ठारह बैठते हों लेकिन तेजस्वी की सियासी पकड़ अखिलेश से कहीं ज्यादा बेहतर है। तेजस्वी लगातार बीजेपी से मुकाबला कर रहे जबकि अखिलेश यादव अपने को ही संभाल नहीं पा रहे मुकाबला करने की तो बाद की बात है। तेजस्वी यादव ने एक तरह से जनता दल नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी घुटने टेकने को मजबूर कर दिया है। नीतीश सरेंडर करके पूरी तरह से लालू-तेजस्वी की शरण में चले गए हैं। तेजस्वी ने बिहार में कोई ऐसा प्रयोग नहीं किया जैसा उत्तर प्रदेश में अखिलेश करते रहे हैं।
इसी वर्ष हुए विधानसभा चुनाव में तो अखिलेश यादव ने हर उस नेता को गले लगा लिया जो बीजेपी से नाराज चल रहा था, भले ही इससे उन्हें (अखिलेश को) फायदा कम नुकसान ज्यादा हुआ। इसमें से कई नेता तो अखिलेश का साथ छोड़ भी चुके हैं जिसमें ओमप्रकाश राजभर प्रमुख है जो बीजेपी से गठबंधन तोड़ कर सपा के साथ आए थे लेकिन चुनाव में सपा की दुर्दशा देखकर उनको समझ में आ गया कि सपा के साथ उनका भविष्य बहुत स्वर्णिम नहीं है। इससे पहले महान बन भी सपा से गठबंधन तोड़ चुका था।
खैर, राजनीति कब करवट ले ले कोई नहीं जानता, लेकिन इसके लिए सपा प्रमुख को काफी मेहनत करना होगी। उन्हें पार्टी में उन लोगों को भी तवज्जो देना होगी जिनके लिए नेता से बढ़कर पार्टी होती है। ऐसे नेता खरी खरी कहते जरूर हैं लेकिन इसमें उनका अपना फायदा कम पार्टी के भले की सोच ज्यादा छुपी होती है। अखिलेश के लिए सबसे जरूरी है कि वह ज्यादा समय फील्ड में रहें। ऐसे अनुभवी नेताओं से मिलें जो अपने घरों में बैठ गए हैं।
उनको मनाएं और कुछ महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां भी उनके कंधों पर डालें जिससे उनका मनोबल बढ़ेगा। 2024 में लोकसभा चुनाव होना है। इससे पूर्व इसी वर्ष नवंबर दिसंबर में नगर निकाय के चुनाव प्रस्तावित हैं। अखिलेश यादव की पार्टी नगर निकाय चुनाव में अपनी स्थिति में थोड़ा सुधार कर लेती है तो इसका उसे लोकसभा चुनाव में अच्छा फायदा मिल सकता है क्योंकि अखिलेश यादव बढ़ा हुआ मनोबल लेकर जब लोकसभा चुनाव के समय मैदान में उतरेंगे तो उनका कॉन्फिडेंस लेवल काफी हाई होगा।