
प्रीति नेगी
देहरादून (उत्तराखण्ड)
उत्तराखंड के पहाड़ अब फुसफुसाते नहीं — वे चीखते हैं। कभी बाढ़ के रूप में, कभी भूस्खलन में ढहते हुए, तो कभी बादल फटने पर खून की तरह बहते हुए। इस तबाही की छाया में सड़कों पर अब मोमबत्तियाँ नहीं जलतीं, और आवाज़ें भी समय के साथ मंद पड़ चुकी हैं। जब पहाड़ टूटते हैं और नदियाँ उफनती हैं, तब हमारा आक्रोश कहाँ चला जाता है? हमेशा आम लोग ही कीमत चुकाते हैं, जबकि नेताओं के “महल” सुरक्षित रहते हैं। सुंदर लेकिन नाजुक देवभूमि उत्तराखंड हर साल बरसात में डूबती जा रही है, और प्रशासन की नाकामी अब जनता से छिपी नहीं है। साल दर साल, लोग और प्रकृति दोनों लापरवाही का दंश झेल रहे हैं। 2015 से 2024 के बीच राज्य ने 18,464 आपदाओं का सामना किया — यानी हर साल औसतन दो हज़ार से अधिक। यहां घाटियाँ और बाजार बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने और हिमस्खलन से तबाह हो रहे हैं, और लोगों को संभलने का मौका तक नहीं मिलता।
2025 की सबसे बड़ी त्रासदी 5 अगस्त को उत्तरकाशी में हुई जब धाराली और आसपास के गांवों में बादल फट गया। इस हादसे में कम से कम 5 लोगों की मौत हुई, 50 से अधिक लापता हैं, और 40 घरों व 50 होटलों का नामोनिशान मिट गया। कुछ ही घंटों में सैकड़ों लोग बेघर हो गए, जबकि सेना का हर्षिल स्थित मेडिकल कैंप राहत की एकमात्र किरण बना। उस दिन की तस्वीरें हिमालय के प्रकोप की गवाही देती हैं — नदियाँ रौद्र रूप लेकर नगरों को निगल रही थीं, भूस्खलन इमारतें तोड़ रहे थे और पुल धराशायी हो रहे थे। यह समझना मुश्किल था कि जो मलबा बह रहा है, वह प्राकृतिक है या मानवीय निर्माणों का अवशेष। इस मानसून में उत्तराखंड को सामान्य से 24% अधिक वर्षा हुई। सिर्फ उत्तरकाशी ने एक दिन में 7 घंटे में 100 मिमी बारिश दर्ज की, जबकि कुछ नज़दीकी इलाकों में 400 मिमी तक वर्षा हुई — जो लंदन की वार्षिक बारिश के दो-तिहाई के बराबर है।
लेकिन यह कहानी अकेली नहीं है। सहस्त्रधारा और मालदेवता (देहरादून) में हाल की बादल फटने की घटनाएं भी इसी सूची में जुड़ गई हैं। हर तीसरी आपदा कहीं न कहीं खराब सरकारी योजना से जुड़ी होती है — जल्दबाजी में बनाए गए प्रोजेक्ट, अनदेखी की गई ड्रेनेज सिस्टम, और अस्थिर पहाड़ियों में खोदी गई जलविद्युत सुरंगें। जोशीमठ धंसाव (2023) के बाद अब तक 678 इमारतें असुरक्षित घोषित की जा चुकी हैं और 863 परिवारों को विस्थापित होना पड़ा है। सुरंग खुदाई ने पारंपरिक जलमार्गों को रोक दिया, जिससे भूमिगत जल मिट्टी को खोखला कर रहा है, और पेड़ों की जड़ें कमजोर हो रही हैं। परिणाम — भूस्खलन, बाढ़ और आपदाओं की बढ़ती श्रृंखला। करनप्रयाग के बहुगुणा नगर में राजमार्ग विस्तार और खराब जल निकासी के कारण 50 घरों में दरारें पड़ चुकी हैं। बागेश्वर में 200 से अधिक मकान धंस चुके हैं।
नैनीताल की मॉल रोड सात साल की मरम्मत के बाद भी असुरक्षित बनी हुई है, जबकि रुद्रप्रयाग के मारोड़ा गाँव को सुरंग निर्माण से नुकसान हुआ है और उन्हें आज तक मुआवज़ा नहीं मिला। मस्ताड़ी और भटवाड़ी (उत्तरकाशी) आज भी 1991 के भूकंप और बाद की बाढ़ों के घाव झेल रहे हैं। मसूरी, गोपेश्वर और धारचूला भी शहरीकरण और भूकंपीय गतिविधियों से खतरे के घेरे में हैं। आपदाओं की निगरानी तो होती है, पर वास्तविक समाधान गायब हैं। 2015 से 2024 के बीच 3,667 घर पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं, और असंख्य क्षतिग्रस्त हुए। राहत कार्य अस्थायी हैं, मुआवज़ा देर से मिलता है, और पुनर्निर्माण सरकारी लालफीताशाही में उलझा रहता है। 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद भी राज्य में केवल एक नया डॉपलर रडार जोड़ा गया। आपदा मानचित्र और बाढ़ क्षेत्र निर्धारण की नीति अब भी सिर्फ कागज़ों में है।
2025 में, अचानक आई बाढ़ ने चारधाम यात्रा रोक दी, हाईवे बंद हो गए और हज़ारों यात्री फँस गए। बाजारों के ध्वस्त होने से मौसमी कामगारों की रोज़ी चली गई। ठोस योजना और जल निकासी तंत्र बनाने के बजाय, सरकारें अस्थायी शिविरों और मरम्मत पर ध्यान देती रहीं। सुरक्षा दिशानिर्देश दरकिनार कर दिए गए और असुरक्षित परियोजनाओं को बढ़ावा मिला। इस संकट की जड़ है जनता की खामोशी। पंचायतें बेअसर हैं, चेतावनियाँ अनसुनी की जाती हैं, और आपदा प्रशिक्षण उपेक्षित है। अब जनता को सवाल पूछने चाहिए — पर्यावरणीय दिशानिर्देशों की अनदेखी क्यों? जोखिम भरे प्रोजेक्ट्स की मंजूरी में पारदर्शिता कहाँ है? और करनप्रयाग, जोशीमठ, नैनीताल, रुद्रप्रयाग और बागेश्वर जैसे शहरों को आधुनिक चेतावनी प्रणाली और वास्तविक राहत कब मिलेगी?
समाधान नेताओं को जवाबदेह ठहराने में है। बचाव के बजाय अब जीवित रहने की रणनीति पर ध्यान देना होगा — उचित जोनिंग नियम, वृक्षारोपण और नदियों का वैज्ञानिक प्रबंधन आवश्यक है। ये पहाड़ सिर्फ पर्यटकों के लिए नहीं, बल्कि उन लाखों लोगों का घर हैं जिनका भविष्य आज के निर्णयों पर निर्भर करता है। उत्तराखंड की नियति अब राजनीतिक दिखावे या भाग्य पर नहीं छोड़ी जा सकती। निर्णय विज्ञान, पारदर्शिता और जनसहभागिता पर आधारित होने चाहिए। राज्य को ऐसी नीतियाँ चाहिए जो संवेदनशीलता और जिम्मेदारी के साथ बनाई जाएँ ताकि अगली आपदा का सामना बुलडोज़र से नहीं, बल्कि दूरदर्शिता और तैयारी से किया जा सके। और सच्चाई यही है — पीड़ा हमेशा जनता झेलती है, जबकि नेता अपने “महलों” में सुरक्षित रहते हैं।