ओम प्रकाश उनियाल
चुनाव परिणाम आने से प्रत्यशियों की बैचेनी खत्म हो गयी है। जो जीते उनकी वाह! वाह! व जय-जयकार हो रही है। जो हार गए वे मायूस होकर कोप भवन में जाने की तैयारी में होंगे। सबसे बड़ा दु:ख तो उनको होगा जो अब तक अपनी जीत का शत-प्रतिशत दावा ठोक कर इतरा रहे थे। उनकी तो यह हालत हो जाएगी कि वे ‘न तीन में, न तेरह में’ गिने जाएंगे। पूर्व सीएम और कांग्रेस के दिग्गज हरीश रावत एवं भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जिन विधानसभाओं से चुनाव लड़ रहे थे वहीं से धराशायी हो गए। दोनों के पुन: सीएम बनने का सपना बिखर गया।
कांग्रेस सत्ता में आती तो हरीश रावत की मनोइच्छा पूरी हो जाती। उनके तो क्षेत्र बदले का जाने की बात थी। लेकिन दिग्गज और लोकप्रिय नेता के लिए इस तरह की बातें बनाना जरा अटपटी-सी लगती हैं। जाहिर है, जमीन से जुड़े और राजनीति में लंबा अनुभव हासिल किए हरीश रावत लालकुंआ विधानसभा क्षेत्र की जनता को माफिक नहीं आए।
वैसे भी वे पहले जहां से लड़ना चाहते थे उन्हें वहां से दूसरे क्षेत्र में भेजकर पार्टी ने बहुत बड़ी गलती की। दूसरी तरफ बात करें भाजपा के पुषकर सिंह धामी की। बेशक, तेज-तर्रार, युवा और जुझारु नेता जिन्हें हाईकमान ने राज्य का मुखिया बनाया था। राज्य में उनका प्रदर्शन अच्छा रहा किन्तु उनका अपना ही गणित डगमगा गया।
वे भी औंधे मुंह पटखनी खा गए। यदि वे जीतते तो संभवत: अगले सीएम वही होते। जैसाकि, चर्चाएं चल रही थी। लेकिन, मतदाताओं ने भावी मुख्यमंत्री बनने के सपने देखने वाले नेताओं को इस कदर दरकिनार कर दिया कि इनकी समझ में जरूर आ गया होगा कि अति आत्मविश्वास और महत्वकांक्षा हानिकारक ही होती है। भाजपा के सामने अब प्रदेश का मुखिया बनाने का सवाल है।
सतपाल महाराज, अनिल बलूनी, अजय भट्ट, डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक जैसे नेता आशा में हैं। हाईकमान जिसे चाहेगा वही प्रदेश की बागडोर संभालेगा। या फिर विधायकों द्वारा सर्वसम्मति से चयन किया जाना चाहिए। सीएम पद के लिए भी घमासान तो मचेगा ही। भाजपा चाहिए कि एक बार किसी महिला नेत्री को भी कमान सौंपे।
इस बार रेखा आर्य (सोमेश्वर), रेनु विष्ट (यमकेश्वर), शैला रानी रावत (केदारनाथ), रितु खंडूरी (कोटद्वार), सरिता आर्य (नैनीताल), सविता कपूर (देहरादून कैण्ट) ने विजय हासिल की है। तो फिर किसी महिला नेत्री को अवसर क्यों नहीं? यह पांचवा विधानसभा चुनाव है। राज्य में भाजपा और कांग्रेस ही सत्ता संभालती रही। दोनों राष्ट्रीय दल हैं। वैसे तो महिला हितों की बड़ी-बड़ी बातें दोनों दल करते हैं।
दोनों दलों ने क्या कभी किसी महिला को राज्य की बागडोर सौंपने का प्रयास किया हो तो जनता को बताएं? इसका मतलब यह हुआ कि दोनों दल हवा में बातें करते हैं। क्या आज तक दोनों दलों की जो भी महिलाएं विजयी हुई कोई मुखिया बनने के काबिल नहीं थी? शायद इसका उत्तर ये दोनों दल न दे पाएं।
एक बार किसी विजयी महिला विधायक को अवसर देकर तो देखें। यदि बाहर से भी थोपना चाहें तो किसी अनुभवी व कर्मठ महिला नेत्री को सत्ता सौंपी जाए। महिलाएं भी सरकार बहुत अच्छे ढंग से चला सकती हैं यह क्यों नहीं सोचते हमारे नेता।