कांग्रेस लाओ प्रदेश बचाओ
सुश्री सारिका प्रधान
(पूर्व दर्जा मंत्री)
उत्तराखण्ड प्रदेश में तेजी के साथ घट रहे सियासी घटनाक्रम को देखते हुये सियासी गलियारों में सुगबुगाहट अब तेज होती जा रही है लोग तरह-तरह के कयास लगा रहे है चुनावी विशलेषक चुनावी गणित में व्यस्त हैं तो वहीं मीडिया के लोग प्रदेश के मतदाताओं की नब्ज टटोल रहे हैं कि अबकी बार उत्तराखण्ड में किसकी सरकार बनेगी ?
ये वो सारी बाते हैं जो चुनाव की आहट सुनाई देने के बाद हवा में तैरने लगती हैं। वैसे भी उत्तराखण्ड ऐसे छोटे से प्रदेश में सियासी पारा कुछ ज्यादा ही गर्म रहता है लेकिन इस बार सियासी तापमान कुछ ज्यादा ही गर्म नजर आ रहा है, उसका भी कारण स्पष्ट है कि प्रदेश में भाजपा का नारा अबकि बार 60 पार को दरकिनार रखते हुये और मतदाताओं कीे मंशा को भांपते हुये प्रदेश में ‘‘अबकि बार कांग्रेस सरकार’’ का नारा बुलन्द हो रहा है।
प्रदेश की भाजपा नीत सरकार जहां अपनी नाकामी को छिपाने का प्रयास कर रही है तो वहीं कांग्रेस भाजपा के पांच सालों का हिसाब-किताब लेकर डोर टू डोर मतदाताओं को जागरूक करने का प्रयास कर रही है। ये बात किसी से भी छिपी नहीं है कि प्रदेश का हाल बदहाल है,ै चाहे चिकित्सा हो शिक्षा हो स्वास्थ हो रोजगार हो या फिर पलायन अपने 5 साल के कार्यकाल में भाजपा सरकार हर मोर्चे पर विफल ही रही है
इसका ही नतीजा था कि अपने कार्यकाल के दौरान भाजपा ने प्रदेश में तीन मुख्यमंत्रियों पर अपना दांव आजमाया इसके पीछे भी कारण बिल्कुल साफ है वो ये कि जब भाजपा ने प्रदेश में अपनी सरकार बनाई तब मुख्यमंत्री के रूप में त्रिवेन्द्र सिंह रावत को सत्ता सौंपी त्रिवेन्द्र सिंह रावत प्रदेश में एक ऐसा नाम था जिसे प्रदेश का ज्यादातर मतदाता जानता ही नहीं था, न ही उनकी गिनती प्रदेश के लोकप्रिय नेताओं में होती थी लेकिन हाईकमान ने त्रिवेन्द्र पर दांव खेलकर मुख्यमंत्री की रेस में शुमार दिग्गजों या जो कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुये उनके पर काटने का काम किया था।
भाजपा के अन्दर त्रिवेन्द्र सिंह रावत को लेकर असंतुष्टों की गिनती बढ़ने लगी जिससे प्रदेश में राजनीतिक उथल-पुथल चलने लगी और भाजपा के अन्दर गुटबाजी खुलकर सामने आ गई कई ऐसे उदाहरण हैं जब भाजपा के मंचों पर भाजपा कार्यकर्ता विरोध करते नजर आये ऐसे में विकास तो दूर की बात प्रदेश जहां खड़ा था उससे और पीछे की तरफ चलने लगा। हालात संभलते लेकिन और बिगड़ते चले गये ऐसे में भाजपा हाईकमान को इस बात का अहसास होने लगा कि विधानसभा चुनाव करीब ही हैं ऐसे में स्थिति को पटरी पर कैसे लाया जाये , उनके सामने एक ही विकल्प था वो था नेतृत्व परिवर्तन।
ऐसे में भाजपा ने तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी दी लेकिन वहां भी विरोध के स्वर सुनाई देने लगे इस विरोध का मुख्य कारण गढ़वाल और कुमाऊ के बीच खींचतान थी ऐसे में युवा और ठाकुर पुष्कर सिंह धामी पर दांव खुलकर जातीय समीकरण को साधने की कोशिश करी र्थी लेकिन भाजपा के इस नेतृत्व परिवर्तन ने ये दिखा दिया कि भाजपा अबकि अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है । सच भी यही है कि कांग्रेस भाजपा के हर कदम पर अपनी पैनी नजर बनाये हुये थी भले ही कांग्रेस में वैचारिक मतभेदों को भाजपा ने मंचों के जरिए प्रचारित किया था लेकिन यशपाल आर्य और उनके बेटे विधायक संजीव आर्य की कांग्रेस में वापसी ने एक बार फिर भाजपा के जातीय समीकरण के खेल को बिगाड़ दिया है।
अब चुंकि विधानसभा चुनाव 2022 में तकरीबन 6 माह से भी कम समय बचा है ऐसे में भाजपा के युवा तुर्क मुख्यमंत्री की घोषणायें भी हवा हवाई ही समझी जा रही है क्योंकि उत्तराखण्ड का मतदाता समझ चुका है कि चुनावी साल में किये गये वादे सिर्फ और सिर्फ कोरे ही होते हैं फिर तीन मुख्यमंत्रियों का प्रदेश संभालना इस बात का संकेत है कि भाजपा प्रदेश को अच्छा नेतृत्व दे पाने में नाकामयाब ही रही है।
भले ही भाजपा इस बात को लेकर आश्वस्त हो कि उसने काग्रेस के कई दिग्गज नेताओं को अपने कुनबे में शामिल कर लिया ऐसे में प्रदेश में कांग्रेस खत्म हो जायेगी लेकिन ये भाजपा की भूल है क्यों कि अब भाजपा में गये नेताओं को लगने लगा है कि इस बार भाजपा प्रदेश में मजबूती के साथ खड़ी नहीं हो सकती और उनका भविष्य डगमगा जायेगा, ऐसे में वो भी कांग्रेस में वापसी कर सकते हैं।
अब खुद ही देखिये कि कांग्रेस से भाजपा में गये दिग्गज नेता सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत, सुबोध उनियाल, उमेश शर्मा काऊ, अपने आपको भाजपा में असहज महसूस कर रहे हैं भले ही दिग्गज नेता सतपाल महाराज को भाजपा में मंत्री पद देकर खामोश किया जाता रहा है लेकिन वो कांग्रेस पार्टी में भी मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे थे
जो उन्हें नहीं मिला लिहाजा भाजपा ने उनकी दुखती रग का फायदा उठाया और उन्हें अपने कुनबे में शामिल कर लिया लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूर ही रखा जिसे लेकर सतपाल महाराज के समर्थक नाराज हैं वहीं तेज तर्रार हरक सिंह रावत भी भाजपा से नाराज ही नजर आ रहे हैं, उनका 2022 का चुनाव न लड़ने का ऐलान उनकी भाजपा से नाराजगी को जाहिर करता है।
अब कांग्रेस में यशपाल आर्या की वापसी ने भाजपा के सामने चुनौती पेश कर दी है उम्मीद ही नहीं पूरा यकीन है कि चुनाव से पहले कांग्रेस के जो नेता भाजपा में गये थे वे वापसी कर सकते हैं यदि ऐसा होता है तो कांग्रेस बहुत मजबूती के साथ चुनावी समर में उतरेगी। बहरहाल प्रदेश में विकास नाम की चीज नही है
जिसे लेकर भाजपा मतदाता के सामने जायेप्रदेश में चिकित्सा,स्वास्थ,शिक्षा,पेयजल,रोजगार और पलायन जैसी समस्या जस की तस हैं ऐस में कोरे वादों से जनता का भला नहीं होने वाला है वहीं कांग्रेस के लिए इससे ज्यादा और कोई सुनहरा मौका नहीं होगा जब वो भाजपा की नाकामी को चुनाव में भुना ले कहने का मतलब ये है कि वो अपनी गल्तियों को सुधारते हुये मजबूती के साथ भाजपा का मुकाबला करे तो यकीनन मिशन 2022 भाजपा के लिए किसी बुरे स्वप्न से कम नहीं होगा।